Monday, January 31, 2011

क्या हमारा जनतंत्र वाकई अमीरों का है : गिरीश मिश्र

भारत में जनतंत्र नहीं, बल्कि अल्पतंत्र यानी ओलिगार्की है, यह मानना है अरुंधति राय और रघुराम गोविंद राजन का, जिनके मूलभूत दृष्टिकोण में जमीन-आसमान का अंतर है। राय भारत की वर्तमान सामाजिक अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की हामी हैं तथा दलित-उत्पीड़ित-वंचित लोगों के आंदोलनों में उनके साथ खड़ी नजर आती हैं। इन दिनों माओवादियों के पक्ष का समर्थन कर वह चर्चा में हैं। दूसरी ओर, राजन अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री हैं। उनका जुड़ाव दक्षिणपंथी विचारधारा वाले शिकागो स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से है। वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख अर्थशास्त्री रह चुके हैं और इस समय हमारे प्रधानमंत्री के मानव आर्थिक सलाहकार हैं। राजन अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका न्यूनतम करने तथा विदेशी पूंजी और मालों के आने-जाने पर से हर प्रकार की पाबंदी हटाने के पक्षधर हैं। भारतीय जनतंत्र को लेकर जब अरुंधति से पूछा गया कि क्या वह अपने पहले के इस बयान पर अडिग हैं कि भारतीय जनतंत्र नकली है, तो उन्होंने एक न्यूज चैनल को बताया कि ‘निश्चित रूप से मैं महसूस करती हूं कि भारत में अल्पतंत्र है। यहां वह मध्यम एवं उच्च वर्गों के लिए ही जनतंत्र के रूप में काम करता है। चूंकि वह आम जन समूहों के लिए काम नहीं करता, अतः वह नकली जनतंत्र है।’ अमेरिका के अग्रणी वित्तीय समाचार पत्र द वॉलस्ट्रीट जर्नल ने अपने १५ अप्रैल के अंक में टिप्पणी करते हुए पूछा कि क्या माओवादियों के सवाल पर अरुंधति और प्रधानमंत्री के सलाहकार एकमत हैं? पत्र में १० सितंबर, २००८ को मुंबई चैंबर ऑफ कॉमर्स में राजन के दिए गए भाषण का हवाला देते हुए बताया गया कि इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है। आइए, राजन के भाषण को देखें, जो अविकल रूप में ११ पृष्ठों में है। उन्होंने आरंभ में ही रेखांकित किया कि वह उसी भावना से ओतप्रोत होकर बोल रहे हैं, जिसको वह और उनके सहकर्मी शिकागो विश्वविद्यालय में अपनाते हैं, यानी सत्य के किसी भी पक्ष को नहीं छिपाते। उन्होंने बताया कि हम भारतीय इतिहास के एक अत्यंत निर्णायक काल में प्रवेश कर रहे हैं, जिस पर हमारा भविष्य निर्भर होगा। जब नेहरू युग से चले आ रहे लाइसेंस-परमिट राज को खत्म करके नव उदारवादी आर्थिक विकास का रास्ता उपनाया गया, तब उसका फायदा मुख्य रूप से समुद्रतटीय राज्यों को मिला। अन्य राज्य रोजगार के अवसरों तथा सार्वजनिक सेवाओं से काफी कुछ वंचित रहे। वहां पर गरीबों की हालत पहले से बिगड़ी। नेहरू-इंदिरा युग में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पिछड़े राज्यों को केंद्र सरकार निवेश आबंटित करती थी, मगर उदारीकरण का मार्ग अपनाने के बाद यह काम बाजार की शक्तियां करने लगीं। फलस्वरूप तटीय राज्यों की ओर ही नए निवेश का प्रवाह होने लगा। अविभाजित मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार पहले की अपेक्षा पिछड़ गए। यही हाल उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश आदि के आदिवासी बहुल इलाकों का हुआ। इन सब जगहों में कुशासन बढ़ा। शिक्षा और स्वास्थ्य की दशा बिगड़ी। राजन के शब्दों में सुनिए ‘सार्वजनिक वस्तुओं को मुहैया कराने वाली हमारी संपूर्ण प्रशासनिक प्रणाली का रुख गरीब विरोधी है। कार्ड होने के बावजूद राशन की दुकानों से उन्हें वे सामान नहीं मिलते, जिनके वे हकदार हैं। शिक्षक विद्यालयों में नहीं आते, पुलिस धनवानों और सामर्थ्यवानों द्वारा गरीबों की संपत्ति हड़पने और सताने के मुकदमे दर्ज नहीं करती, सार्वजनिक अस्पतालों में कर्मचारी नहीं होते और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक गरीबों को आसानी से ऋण नहीं देते। ...यह सूची लंबी है। ...गरीबों के पास सेवाएं खरीदने या सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत देने के लिए पैसे नहीं हैं।’ गरीबों के पास वोट का अधिकार है, जिसे पाने के क्रम में राजनेता उनकी कुछ सहायता करते हैं। राजन के अनुसार, आज वोटर की नजर में स्थानीय राजनेता की अहमियत इसलिए है, क्योंकि वह पूर्णतया भ्रष्ट व्यवस्था के चक्रव्यूह से बाहर निकलने में उसकी मदद करता है। वोटर जानता है कि व्यवस्था को बदलना आसान नहीं है और उसका भला जुगाड़ बैठाने वाले नेता के साथ रहने में ही है। ‘इस व्यवस्था से जिनका पूरी तरह मोहभंग हो गया है, उन्हें हिंसा वैकल्पिक रास्ता दिखाती है। नक्सलियों की बढ़ोतरी एक और सुबूत है कि गरीबों के लिए सार्वजनिक वस्तुओं की वितरण-व्यवस्था ठप हो गई है।’ राजन प्रश्न करते हैं कि राजनेताओं को पैसे कहां से आते हैं, जिनसे वह वोटरों के संरक्षण की व्यवस्था करता है। अब लाइसेंस राज तो रहा नहीं कि वह बिचौलिया बनकर कमाई करे। राजन इसका उत्तर यों देते हैं कि सोवियत संघ के अवसान के बाद रूस में ८७ अरबपति पनपे, जिन्हें ‘ओलिगार्क’ या अल्पतंत्राधिकारी कहा गया। इन्होंने राज्य की संपदा हड़पी। भारत में ५५ अरबपति हैं, जबकि हमारा सकल राष्ट्रीय उत्पाद ११ खरब डॉलर है और रूस का १३ खरब डॉलर। रूस की तुलना में हमारी प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है, क्योंकि हमारी जनसंख्या उसकी तुलना में चौगुनी है। किंतु जर्मनी, ब्राजील को देखें, तो प्रति व्यक्ति आय कम होने पर भी हमारे यहां अरबपतियों की संख्या अधिक है। कहना न होगा कि ये अरबपति नई सूचना प्रौद्योगिकी से उपजे दूरद्रष्टा उद्यमी नहीं हैं। इनके उत्कर्ष के पीछे तीन कारकों को हड़पना है। ये कारक हैंः जमीन, प्राकृतिक संसाधन और सरकारी ठेके। इन्हीं से उन्होंने अरबों की राशि कमाई है। राजनेताओं ने उन्हें इस लूट में सहायता की है। राजन रेखांकित करते हैं कि गरीबों को राजनेताओं की मदद चाहिए और राजनेताओं को भ्रष्ट व्यवस्थाओं से पैसे की दरकार है, जिससे गरीबों को संरक्षण दें और चुनावों में विजय प्राप्त करें। यही वास्तविकता है, जो आसानी से बदलती नजर नहीं आती। राजन ने माना है कि लाइसेंस राज खत्म होने के बाद भ्रष्टाचार के विदा होने की जो बात कही जा रही थी, वह गलत सिद्ध हुई है। आर्थिक सुधार कार्यक्रमों ने भ्रष्टाचार के नए अवसर पैदा किए हैं। कहना न होगा कि अरुंधति राय और रघुराम गोविंद राजन अपनी विरोधी विचारधाराओं के बावजूद भारतीय जनतंत्र को महज औपचारिक मानते हैं। 

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