फदील अल-अज्ज़वी की दो कविताएँ
जब उन्होंने मुझे जेल की कोठरी में डालकर ताला जड़ दिया
एक गुलाम लड़की दीवार से बाहर आई.
उसने मुझे अपनी दास्ताँ सुनाई,
अपने दिल की सुनहरी चाभी सौंपी
और मेरे होंठों पर एक निराश चुम्बन छोड़ते हुए
गायब हो गई.
उस चाभी के बारे में मैं भूल गया.
सालों बीत गए
जब मैनें दुबारा आँखें खोलीं
और अपने हाथों में चाभी देखा.
बिना किसी उम्मीद के मैनें ताले में चाभी फिराई
और ताला खुल गया.
दरवाजे के बाहर मैनें देखा
वह बारिश में भीगती खड़ी थी
चुपचाप
अभी तक मेरा इंतज़ार करते हुए.
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कैदी नंबर 907
जेल की मेरी कोठरी में वक़्त का पहिया
थम गया है. मैं इसके अँधेरे में दाखिल होता हूँ
ऐसे निर्वासित बादशाह की तरह
जो रात की दहलीज पर ठहरा हुआ है.
मैं बेवकूफ लड़कियों और
यूनिवर्सिटी की औरतों के प्रेम में गिरफ्तार हूँ
जिन्हें हमदर्दी है बच्चों की खामोशी
और कैदियों की तकलीफ से.
अपनी कोठरी में
मुझे तलाश है प्रेम के एक लमहे की
दुनिया के मुंह पर.
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(अनुवाद : मनोज पटेल)
bahut hi sundar anuvadit rachna...
ReplyDeletedono rachnayen bahut hi marmsparshi hain..
Sarthak prastuti hetu dhanyavad..
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ReplyDeleteपढ़ते-पढ़ते पर आपका स्वागत है.
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